मुंसिफ़

लफ़्ज़ों के साथ इंसाफ़ करने की अदद कोशिश...

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It is too bad to be too good

Tuesday 20 January 2009

दोस्ती...

मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला,
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला।

घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे,
बहुत तलाश किया, कोई आदमी न मिला।

तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था,
फिर उसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला।

ख़ुला की इतनी बड़ी क़ायनात में मैंने,
बस एक शख़्स को मांगा, मुझे वही न मिला।

बहुत अजीब है ये क़ुरबतों की दूरी भी,
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला।

(उर्दू अदब की अज़ीम शख़्सियत बशीर बद्र के अ`शआर)

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हम भी दरिया हैं....

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जाएगा।

हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा।

इतनी सच्चाई से, मुझसे ज़िंदगी ने कह दिया,
तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जाएगा।

मैं ख़ुदा का नाम लेकर पी रहा हूं दोस्तों,
ज़हर भी इसमें अगर होगा दवा हो जाएगा।

सब उसी के हैं, हवा, ख़ुशबू, ज़मीनों-आसमां,
मैं जहां भी जाऊंगा उसको पता हो जाएगा।

(उर्दू अदब की अज़ीम शख़्सियत बशीर बद्र के अ`शआर)

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आंखों में रहा...

आंखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा,
किश्ती के मुसाफ़िर ने समंदर नहीं देखा।

बेवक़्त अगर जाऊंगा सब चौंक पड़ेंगे,
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा।

जिस दिन से चला हूं मेरी मंज़िल पे नज़र है,
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा।

ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं,
तुमने मेरा कांटों भरा बिस्तर नहीं देखा।

पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला,
मैं मोम हूं, उसने मुझे छूकर नहीं देखा।

(उर्दू अदब की अज़ीम शख़्सियत बशीर बद्र के अ`शआर)

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Saturday 17 January 2009

ये लाल रंग कब उसे छोड़ेगा...


(ये हक़ीक़त है, जो कहानी से ज़्यादा दिलचस्प, लेकिन भयानक है....आज भी लाल जोड़ा देखकर रुख़सार का चेहरा निगाहों से आंख-मिचौली खेलकर ग़ायब हो जाता है, ठीक उसी तरह जैसे वो ग़ायब हो गई...)


रेलगाड़ी मुरादाबाद में पटरियों पर धीरे-धीरे रेंग रही है। अपने सीने से लोहे के भारी-भरकम पहियों को गुज़रने की इजाज़त देने वाली पटरियों को शायद नहीं मालूम था, कि उस दिन गाड़ी के पहिए जब उसके सीने से टकरा रहे थे, तो सिर्फ़ लोहे के टकराने की आवाज़ ही नहीं, बल्कि उसमें कहीं शहनाई की गूंज सुनाई दे रही थी। आप कहेंगे पटरियों की आवाज़ और शहनाई में क्या रिश्ता....नहीं..., मगर रुख़सार कहती है `हां`। वही रुख़सार, जिसने ज़िंदगी में एक बार अनजान से काज़ी के एक सवाल के जवाब में हां (क़ुबूल, क़ुबूल, क़ुबूल) कहा था और उसके बाद बदनसीबी से ये इक़रार उसका नसीब बन गया। ख़ैर रेलगाड़ी क़रीब चौबीस घंटे का सफ़र करने के बाद अपनी मंज़िल बिहार (पटना) पहुंच चुकी थी। गाड़ी क़रीब खाली हो चुकी थी और तीन लोग खिड़की से बाहर झांक रहे थे। बिहार और मुरादाबाद का ये रिश्ता सबसे पहले रेल की पटरियों के नाते जुड़ा, जो बाद में कांच की चूड़ियों से बंध गया। पटरियों के सीने पर दौड़ती गाड़ी आज वही रिश्ता लेकर पीतलनगरी (मुरादाबाद) से पटना पहुंची। रिश्ता क्या था, एक ग़रीब लड़की के अरमान अंतिम संस्कार से पहले किसी लाश की तरह सजाए जा रहे थे। मगर, शादी के बावजूद सन्नाटा एकदम वैसा ही था, जैसा मरघट पर होता है। पटना से क़रीब छह घंटे और दो बसों का सफ़र करके मुरादाबाद के तीनों लोग एक अनजाने से गांव में पहुंचे। एक औरत, दो आदमी और तीन झोले। सबसे अच्छा दिखने वाला झोला औरत के हाथ में था, जिसे वो मरते दम तक भी नहीं छोड़ती। मगर एक बहुत ही भोले-भाले दिखने वाले बच्चे ने औरत के पीछे से आकर झोला छीन लिया और पूरे गांव को पता चल गया कि, गयासुद्दीन की बेटी आज से ह हमेशा के लिए चली जाएगी। यही है वहां का रिवाज़....,वहां का, उनका..., या फिर ग़रीबी का। पता नहीं..., लेकिन ये अजब विदाई तो उसी दिन तय हो गई थी, जिस मनहूस घड़ी रुख़सार ने दुनिया में क़दम रखा था,( दुनिया में, गयासुद्दीन के घर में या उस गांव में या मुफ़लिसी में, जो भी कह लीजिए, शब्द बदलने से रुख़सार का नसीब नहीं बदलेगा)। गयासुद्दीन के छोटे से घर में मुरादाबाद के तीनों ख़ास मेहमान ऐसे समा गए, जैसे सांप के पेट में चूहा। क़रीब चौबीस घंटे तक गयासुद्दीन के घर में और कोई नहीं आया-गया, लेकिन सबको पता था, कि घर में क्या-क्या हुआ। रुख़सार के क़रीब से निकलने वालों को उसके बदन से गुलाब की ख़ुशबू आ रही थी, लेकिन ना जाने कैसे रुख़सार को ये एहसास हो रहा था, कि शायद ये महक उसकी ज़िंदगी में पहली बार नहीं आख़िरी बार आई है। रुख़सार के हाथ शायद आज पहली बार अपने मुक़द्दर पर ख़ुश हो रहे थे। पत्थरों और कांटेदार लकड़ियों से लड़ते-लड़ते अक्सर ख़ून से नहा लेने वाली बेक़ुसूर उंगलियां सोलह बरस की हो गईं। मुद्दतों बाद रुख़सार की आंखों ने भी ख़ुशी के लम्हे अपनी आंखों में क़ैद किए। अकसर तक़लीफ़ों और मुफ़लिसी में आंसुओं से भीग जाने वाली आंखें आज काजल लगने से भी छलक पड़ीं। आंखों को भी शायद धोखा हो गया था। क्योंकि ये काजल तो आंखों में मेहमान की तरह था, उस छलिया काजल को तो आंसुओं में ही बह जाना था। ये लाल रंग कब उसे छोड़ेगा, भाग (एक) क्रमश....

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Sunday 11 January 2009

ख़त....

तुम्हारे ख़त में नया एक सलाम किसका था,
ना था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किसका था।

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा,
मक़ीम कौन हुआ है, मक़ाम किसका था।

वफ़ा करेंगे, निबाहेंगे, बात मानेंगे,
तुम्हें भी याद है कुछ, ये कलाम किसका था।

गुज़र गया वो ज़माना, कहें तो किससे कहें,
ख़्याल दिल को मेरे सुबह-शाम किसका था।

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Thursday 8 January 2009

घर से निकले...

घर से निकले तो हो, सोचा भी किधर जाओगे,
हर तरफ़ तेज़ हवाएं हैं बिखर जाओगे।

इतना आसान नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना,
घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे।

शाम होते ही सिमट जाएंगे सारे रस्ते,
बहते दरिया में जहां होगे ठहर जाओगे।

हर नए शहर में कुछ रातें कड़ी होती हैं,
छत से दीवारें जुदा होंगी तो डर जाओगे।

पहले हर चीज़ नज़र आएगी बेमानी-सी,
और फिर अपनी ही नज़रों से उतर जाओगे।

(जनाब निदा फ़ाज़ली के अ`शआर)

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चलो यूं ही सही...

आती-जाती हर मुहब्बत है, चलो यूं ही सही,
जब तलक है ख़ूबसूरत है चलो यूं ही सही।

हम कहां के देवता हैं बेवफ़ा वो है तो क्या,
घर में कोई घर की ज़ीनत है, चलो यूं ही सही।

वो नहीं तो कोई तो होगा कहीं उसकी तरह,
जिस्म में जब तक बरारत है, चलो यूं ही सही।

मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह,
दोस्ती हर दिन की मेहनत है, चलो यूं ही सही।

भूल थी अपनी, फ़रिश्ता आदमी में ढूंढना,
आदमी में आदमीयत है, चलो यूं ही सही।

जैसी होनी चाहिए थी, वैसी तो दुनिया नहीं,
दुनियादारी भी ज़रूरत है, चलो यूं ही सही।

(जनाब निदा फ़ाज़ली के अ`शआर)

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तन्हा-तन्हा....

तन्हा-तन्हा दुख झेलेंगे महफ़िल-महफ़िल गाएंगे,
जब तक आंसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनाएंगे।

आज उन्हें हंसते देखा तो कितनी बातें याद आईं,
कुछ दिन हमने भी सोचा था उनको भूल ना पाएंगे।

तुम जो सोचो वो तुम जानो, हम तो अपनी कहते हैं,
देर ना करना घर जाने में वर्ना घर खो जाएंगे।

बच्चों के छोटे हाथों को चांद-सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे।

अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर दिल हों मुमकिन है,
हम तो उस दिन राय देंगे, जिस दिन धोखा खाएंगे।

किन राहों से दूर है मंज़िल, कौन-सा रस्ता आसां है,
हम भी जब थक कर बैठेंगे औरों को समझाएंगे।

(उर्दू अदब के शोहरतमंद शायर निदा फ़ाज़ली के अ`शआर)

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अपनी मर्ज़ी...

अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं,
रुख़ हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं।

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं।

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से,
किसको मालूम, कहां के हैं, किधर के हम हैं।

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं,
कभी धरती के, कभी चांद नगर के हम हैं।

चलते-रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब,
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं।

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दैर में हम,
हर कलमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं।

ये जब की बात है तुम भी न थे निगाहों में,
तुम्हारे नाम की ख़ुशबू थी मेरी राहों में।

(जनाब निदा फ़ाज़ली के अ`शआर)

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तबियत ही मिली थी ऐसी...

कुछ तबियत ही मिली थी ऐसी कि चैन से जीने की सूरत न हुई,
जिसको चाहा उसे अपना ना सके, जो मिला उससे मुहब्बत न हुई।
जिससे अब तक मिले दिल से ही मिले, दिल जो बदला तो फ़साना बदला,
रस्मे दुनिया को निभाने के लिए हमसे रिश्तों की तिजारत न हुई।
दूर से था वो कई चेहरों में, पास से कोई भी वैसा न लगा,
बेवफ़ाई भी था उसी का चलन, फिर किसी से ये शिकायत न हुई।
छोड़कर घर को कहीं जाने से, घर में रहने की इबादत थी बड़ी,
झूठ मशहूर हुआ राजा का, सच की बाज़ार में शोहरत न हुई।
वक़्त रूठा रहा बच्चे की तरह, राह में कोई खिलौना न मिला,
दोस्ती की तो निभाई न गई, दुश्मनी में भी अदावत न हुई।
(मशहूर शायर जनाब निदा फ़ाज़ली के अ`शआर)

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अपना ग़म ले के...

अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाए,
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए।
जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं,
उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाए।
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं,
किसी तितली को न फूलों से न उड़ाया जाए।
ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सबमें
और कुछ दिन अभी औरों को सताया जाए।
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
(मशहूर शायर जनाब निदा फ़ाज़ली की नज़्म)

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Sunday 4 January 2009

ख़ामोशी...

ख़ामोश हो क्यों, दाद-ए-जफ़ा (अत्याचार को समर्थन) क्यों नहीं देते,
बिस्मिल (घायल) हो तो क़ातिल को दुआ क्यों नहीं देते।

वहशत का सबब रौज़ने-ज़िंदा (जीवित छिद्र) तो नहीं है,
महरोमा-व-अंजुम (चांद-तारों) को बुझा क्यों नहीं देते।

इक ये भी तो अंदाज़े-इलाजे-ग़मे जां है,
ऐ चरागारों, दर्द बढ़ा क्यों नहीं देते।

मुंसिफ़ हो अगर तुम तो कब इंसाफ़ करोगे ?
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यों नहीं देते ?

रहज़न (राह में लूटने वाले) हो तो हाज़िर है मताए-दिलो-जां (दिल-जान की शक्ति) भी,
रहबर (साथ चलने वाला पथिक) हो तो मंज़िल का पता क्यों नहीं देते।

क्या बीत गई अबके `फ़राज़` अहले-चमन पर,
याराने-क़फ़स (क़ैद में रहने वाले) मुझको सदा क्यों नहीं देते।

उर्दू अदब के हस्ताक्षर जनाब अहमद फ़राज़ के चंद शेरों से ब्लॉग की दुनिया में आगाज़ किया है, जो मुझे पसंद हैं। उम्मीद है आपको भी पसंद आएंगे...और पसंद आएं तो कमेंट्स लाज़िम हैं, क्योंकि आगे हिम्मत बनी रहेगी।

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