मुंसिफ़

लफ़्ज़ों के साथ इंसाफ़ करने की अदद कोशिश...

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It is too bad to be too good

Thursday 8 January 2009

तबियत ही मिली थी ऐसी...

कुछ तबियत ही मिली थी ऐसी कि चैन से जीने की सूरत न हुई,
जिसको चाहा उसे अपना ना सके, जो मिला उससे मुहब्बत न हुई।
जिससे अब तक मिले दिल से ही मिले, दिल जो बदला तो फ़साना बदला,
रस्मे दुनिया को निभाने के लिए हमसे रिश्तों की तिजारत न हुई।
दूर से था वो कई चेहरों में, पास से कोई भी वैसा न लगा,
बेवफ़ाई भी था उसी का चलन, फिर किसी से ये शिकायत न हुई।
छोड़कर घर को कहीं जाने से, घर में रहने की इबादत थी बड़ी,
झूठ मशहूर हुआ राजा का, सच की बाज़ार में शोहरत न हुई।
वक़्त रूठा रहा बच्चे की तरह, राह में कोई खिलौना न मिला,
दोस्ती की तो निभाई न गई, दुश्मनी में भी अदावत न हुई।
(मशहूर शायर जनाब निदा फ़ाज़ली के अ`शआर)

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1 Comments:

Blogger के सी said...

निदा फ़ाज़ली साहब की ग़ज़ल से आपने शाम हसीन कर दी। आज सरकारी अवकाश के कारण दिन बिस्तर में बिताया और शाम का समय आप जैसों के लिए निर्धारित ही था पर ऐसा ना सोचा कि इतनी सुंदर शुरुआत होगी? कुछ और ब्लोग्स पढ़ लूँ, पर याद रखिये आपके इस पाठक को सदैव नवीन पोस्ट की प्रतीक्षा बनी रहती है।

8 January 2009 at 06:52  

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