मुंसिफ़

लफ़्ज़ों के साथ इंसाफ़ करने की अदद कोशिश...

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It is too bad to be too good

Saturday 18 January 2014

Aurat

न जाने कितनी चोट दिल पर लगी न जाने किस गम मैं खोकर वो वापस मुस्कुराई है
इस धरती पर सीता न जाने कितनी बार सताई है,हर बार अपनों ने  ही छला उसको ,
अपनों के खातिर फिर भी  घायल होकर भी  नम  आँखों से वापस वो मुस्कुराई है ,
प्यार करना और फिर उसी प्यार के लिए चुप -चाप आंसू बाहना यही बाद में  महान कहलाई है
अपनी ख़ुशी ,अपने  सपने ,अपनी ज़िन्दगी  कुछ भी नहीं वो यह सब अपने मायके छोड़ कर आयी है

Thursday 19 December 2013

waqt

दो पल वक़्त यु पड़े थे  कप में चाये की तरहा
वो भी यु ही कब के पड़े पड़े  सोच   रहे थे
कब मुझे कोई इस्तेमाल  करेगा ये सोच रहे थे
फिर वो पुरानी यादों मे खो गया पल भर के लिए
सोचा एक वो वक़्त जब मैं कम पड़ जाता था
आज मैं पड़ा हूँ किसी को मेरी ज़रुरत ही नहीं

Sunday 15 December 2013

कुछ शायराना पल

दुनिया की रिवायतों मैं शिकायत भी शामिल है 
तुझे है शिकवा है तो गिला नहीं शिकायतें मुझसे इस जहाँ को भी हैं

तुझसे शिकायत करे तो करे कैसे 
तेरे वक़्त पर हक़ तेरा भी नहीं है 

तेरे आने कि आहट के इंतज़ार ने कभी सोने न दिया 
वो वक़्त था कभी हमारा जिसे हमने जाने न दिया .

पाँव मैं छाले है और हाथ मैं खंजर है 
नसीब है ऐसा कि शिकायत ही नहीं है 

बहुत हुआ रूठना अब मान भी जाओ 
मुझसे मनाया नहीं जाता तुमसे माना नहीं जाता 

बगावतें करना चलन था उसका 
कभी रिश्तों से कभी खुद से बगावत करता गया 

तुम खुद चला कर आ सकते हो तो आ जाओ 
मेरे घर केरास्ते मैं कहीं कही  कशा नहीं है 

पत्थरों से डरते हैं आप कैसे इंसान है 
इंसान पत्थर है पत्थर फिर भी बदलते हैं 

चंद साँसों के लिए  सिसकते हुए रिश्तों को पाया है 
खुद अपनों को परायों से भी जयदा गैर पाया है 

मजहबों ने चैन से किसी को कभी  जीने न दिया 
सियासत के लिए वो रोटियां इंसानो की चिताओं पर सैंकते रहे 

मजहबों ने चैन से किसी को कभी  जीने न दिया 
सियासत के लिए वो रोटियां इंसानो की चिताओं पर सैंकते रहे 

किसी मासूम बच्चे की हंसी से पाक कोई मजहब हुआ है कोई 
तुम उसी मासूम की आँखों से आंशू बहाते चले गए 

चार पल चांदनी के तुम्हारी हुमारे पास पड़ें हैं 
तुम एस कदर गए ही शहर की फिर शहर न हुई 

कौन सा आइना है जिसे तुम देखते हो 
मेरे आईने मैं झलक तुम्हारी ही मिलती है 

साथ- साथ चलकर उसने यह कह दिया 
चलो रास्ते अपने- अपने तलाशते हैं 

यादें जब भी याद आ जाती है एक सुकून सा दिल को दे जाती हैं
 तुम कहकर भी  नहीं आते वो बिना कहे ही आ जाती हैं


वो अपना सा अजनबी बनकर हमेशा साथ रहा 
साथ रखकर भी वो अक्सर दूर ही रहा 


वो अपना सा अजनबी बनकर हमेशा साथ रहा 
साथ रखकर भी वो अक्सर दूर ही रहा 


हम गैर भी अगर कह  दें तो कह दें कैसे 
घर अब भी उसने दिलमें बनाये रखा है 

तुम्हारे पैरो के निशाँ यहाँ पर आज भी मिलते हैं 
पर तुम न जाने किस  देश मैं बसते हो अब मग

वो खुशबू तुम्हारी जो मुझसे आज  भी आती है अक्सर 
वो मेरे जनमों की अमानत है जो पास आती है अक्सर 

मैं तलाश मैं अपनी यु घूमता फिरता हूँ
क्या वजूद है मैं क्या मांगता रहता हूँ

हाथों को उठा कर वो जब भी कोई  दुआ मांगती है
अजनबी इंसान से फिर जान पहचान उम्मीद जागती है

तुम्हारे साथ साथ मेरी काजल से सजी आँखें भी कहीं खोई हैं
यह आँखें सिर्फ आंशू से भरी हैं और भर कर अक्सर बहती ही रही हैं



















Saturday 23 November 2013

मैं औरत हूँ कोई भोग की बस्तु नहीं

किसी की कही चंद लाइनो ने सोचने पर विवश कर दिया भारत की संस्कृति बदल रही है अब महिलाएं तय करेंगी कि उन्हे किसके साथ सोना है और किसके साथ बच्चे पैदा करना है भारत कि संस्कृति बदल रही है ,बहुत ही छोटी मानसिकता और पुरुष सोच लगी ,क्या सारे पुरुषों की सोच ऐसी ही है क्या महिला सिर्फ एक भोग की सामग्री है जिसमें उसकी अपनी सोच या अपनी कोई इच्छा नहीं   है
इतिहास गवहा है भारत मैं महिलों को पूरी आज़ादी थी अपने लिए बर का चुनाव करने कि सीता का स्वमबर या सावित्री ने अपने लिए सत्यवान को चुना या द्रोपदी का विवहा सबको आज़ादी थी अपने लिए अपने योग्य बर के चुनाब की,इसे यही साबित होता है  पुराने समाये मैं महिलाओं को जयदा सम्मान और बराबर का अधिकार दिया गया था l
आज के बदलते परिवेश मैं महिलों से ही सारी उमीदें और आशाएं क्यों आखिर वो भी एक इंसान है और उसकी भी अपने ज़रुरत और चाहत है ,एक पुरुष को आज़ादी है वो जब कहें जिसकेसाथ चाहें अनैतिक रिश्ता बना सकता है तो फिर एक महिला क्यों नहीं ऐसा कर सकती शारीरिक जरूरत तो दोनों की है फिर एक को मर्यादा त्यागने का अधिकार और वही महिला करे तो उसे कुलटा या कलंकनी समझा जाता है यह कैसा दोहरा सा चरित्र है इस समाज का दोनों के लिए अलग -अलग मापदंड किस लिए हैंl
 या तो पुरुष भी अपना दायरा तय करें नहीं करसकते तो उन्हे यह भी अधिकार नहीं कि वो उस पर पावंदी लगाये या फब्तियां कसे ,आज के दौर मैं जब  महिलाएं चाँद पर जा रही है हर क्षेत्र मैं खुद को साबित कर रही है पुरुषों से किसी भी तरहा से पीछे नहीं हैं ,तो अब उनपर पाबन्दी किस लिए ,हर किसी को अपनी ज़िन्दगी जीने का बराबर से अधिकार है और यह कहने का भी कि उसकी शारीरिक ज़रुरत भी है और उसकी अपनी मर्ज़ी भी कानून भी यह अधिकार देता है बिना उसके मर्ज़ी से उसका पति भी उसके साथ रिश्ता नहीं बना सकता है फिर यह पुरुष मानसिकता या कुछ पुरुषों की मानसिकता क्यों नहीं बदल सकती है l
 महिला सिर्फ एक देह नहीं है एक जीती जागती इंसान है जिसे अधिकार है वो अपनी इच्छा या मर्ज़ी से तय करे कि क्या चाहती है ,आज़ादी का मापदंड दोनों के लिए एक बराबर है दोनों को बराबर अधिकार है ,सोच शायद गलत लगे क्युकी हमेशा रिश्तों के नाम पर प्यार के नाम पर  और समाज के नाम पर उसे से ही उम्मीद के जाती है वो त्याग करती रहे और चुपचाप से बर्दाश्त करती जाये क्युकी वो त्याग की मूरत है जैसी समाज और परिवार ने अपने हिसाब से तय किया है उसका एक दायरा l
 आज जब वो अपराध के खिलाफ आवाज़ उठा रही है तब सबको बहुत परेशानी है वो चुप क्यों नहीं रहती कैसी मानसिकता मैं जी रहे हैं हम यौन अपराध , बलात्कार या घर मैं अपनों के द्वारा बच्चियों के साथ गलत हो वो नहीं दिखाई  देता वहाँ उसके सम्मान के लिए लोग कितना साथ देते है खुद अपने माता-पिता भी यही कहते हैं चुप रहो क्युकी बदनामी होगी और उसी का असर है जो महिलाओं के खिलाफ अपराध इतने बढ़ते जा रहे हैं ,हमारी सोच बहुत छोटी है हम उसी मैं क़ैद है l समाज उसपर ही ऊँगली उठता है जिसके ऊपर अपराध हुआ है उसमें कोई कमी होगी यह ढूंढ़ता है बिना यह सोचे कि अपराधी की पूरे गलती है l बदलाब की ज़रुरत है हर तरफ नैतिक मूल्यों को बचाना है और आगे आपने वाली पीडी को कुछ देना है तो बदलाब महिला -पुरुष दोनों को ही मिलकर करना होगा ज़रुरत सोच और नज़रिया बदलने की है l










Saturday 9 November 2013

violence against women

The question of why violence against women is so prolific in India is a matter of considerable debate, as is the question of what to do about it.

On September 13, 2013, a Delhi court sentenced to death four of the six men accused of the gang-rape and murder of Pandey. While this verdict was greeted with joy by her family and many sympathizers around the country, Dr. Aisha Gill, writing on the feminist website thefword.org.uk, describes it as a short-cut way to quiet public anger that does not deal with the complex socio-political factors driving violence against women.

According to India’s National Crime Records Bureau, registered rape cases in India have increased by almost 900 percent over the past 40 years. Numbers of trafficked women are also high, and a 2010 report published by the Asia Foundation states that, unusually, 90 percent of India’s trafficking in persons occurs within national borders. Violence against women is perpetrated not only, or even mostly, by strangers but also from agents of the state, spouses and family members.

social revolution’ for empowering women which must seek to reform “the mind-set and old thoughts of our society.” Such change cannot be achieved in a courtroom or through mass protest. It requires instilling particular values to boys and girls, at home, at school and in the public sphere. Conceptions of masculinity and femininity must be readjusted to place emphasis upon respect for the self and for others.

Most victims of violent crimes are brutalized not just by their attacker but thereafter by the system they appeal to or live with. Women in India tend not to appeal to the legal and criminal system because, far from being a source of protection and empowerment, they find that this system makes them even more vulnerable to abuse.

Despite these deep-rooted structures of patriarchy , there is plenty within the rich and historical culture of India that not only affirms the value and dignity of women but portrays them as leaders and warriors. Women can be found at the highest levels of almost every area of public life in India, from politics to academia to cinema. India has a long and vibrant history of women’s movements, and contemporary women’s rights advocates—whilst fighting many long-standing issues—are adeptly using new strategies to go about their work. Now that those accused of the rape and murder of Jyoti Singh Pandey have been tried, and the protestors and their placards have left the streets, the difficult journey towards identifying and changing the inherited prejudices of a collective conscience must continue.

Thursday 7 November 2013

निर्मम हत्या

मेरी कहानी कि पात्रा का नाम कायरा है बहुत ही खुशनुमा और प्यारी सी एक लड़की और उसके जीवन संघर्ष की कहानी है

कायरा आज कल बहुत खुश है आजकल उसका रिश्ता जो पक्का हो गया है और उसने अपने सपनो की दुनिया को सजाना जो सुरु कर दिया है वो एक समझदार और खुशनुमा सी लड़की है हर को उसे प्यार करता है और वो भी हरकिसी के साथ प्यार से मिलती है और बात करती है,अपने घर,रिश्तेदार और आस-  में हर कोई उसे पसंद करता है और तारीफ करता है इतना सारा प्यार और क्या चाहिए  के लिए 

दिन आ गया जब जब कायरा के सपने हक़ीक़त बन कर सामने खड़े थे और वो दिल खोल कर उनका स्वागत करने के लिए तैयार थी ,लाल जोड़ा मेहँदी लगे हाथ माथे पर जगमगाती बिंदिया आँखों मैं काजल और गहनो और फूलों से सजी सबरी बहुत प्यारी लग रही थी मनो अप्सरा ज़मीन पर उतर आयी हो अर्जुन उसे प्यार देखे जा रहा था और सबकी नज़रे चुरा कर उसने चुपके से कायरा से कहा वो बहुत सुन्दर लग रही है

बहुत खूबसूरत से  सपने के तरहा से   सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था  कायरा को ,शादी की सारी रस्में आरम्भ हुई कायरा को लगा   दुनिया की सबसे खुशकिस्मत लड़की है ,एक राजकुमारी की तरहा से सजी सबरी कायरा सच मैं बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी,शादी की रस्में पूरी हुई अब वक़्त विदाई का आ गया सबकी आँखें नम हो गयी और  कायरा विदा होकर अपने ससुराल आ गयी बहुत सारे सपने  और सबके लिए दिल में बहुत सारा प्यार लेकर आयी थी l 
घर मैं अभी आकर बैठी ही थी कि उसकी ननंद ने कुछ कठोर शब्दों मैं ताना दिया और कहा भैया की पंडित जी ने और भी शादियां होना बताया है , कायरा को समझ नहीं आया कि क्यों अचानक से उसने ऐसा क्यों बोला थोड़ी मायूस हुई और उसके मन मैं डर सा आया अपने भबिष्य को लेकर , फिर वो मुस्कुराई और भगवान् सब अच्छा होगा सोचकर वापस खुश हो गयी उसका आज पहला दिन था और वो उदास होकर उसे शुरू नहीं करना चहती थी l
 

Wednesday 6 November 2013

छड़ भंगुर

वक़्त जैसे जैसे बदल रहा है उसी के साथ साथ मानवीय रिश्ते भी बदलने लगे हैं ,ज़रूरतें बड़ी हैं उमीदें बहुत जयदा हैं और सपनो की उड़ान बहुत बड़ी है हर क्षेत्र मैं प्रतिस्पर्दा ने मानवीय मूल्यों को बिकुल बदल दिया है या यह कहिये बहुत पीछे छोड़ दिया है हर कोई अपना -अपना और सिर्फ अपने बारे मैं हीसोच कर आगे बढ़ना चाहता है l रिश्तों के मायने बदले इंसानो की ज़रूरत के हिसाब से उन्हे अपनाया या छोड़ा जाने लगा है ,विवेक ,  बिस्वास ,प्यार , भरोसा ,आत्मीयत भावना ,अपनापन सब सिर्फ चंद शब्दों के नामहै जिनका अपना वजूद कुछ भी नहीं है l परिवार बिखर रहे हैं आज पति -पत्नी और वह  बाली ज़िन्दगी जयदा ख़ुशी से रास आ रही है बात स्त्री या पुरुष की नहीं बात दोनों की सोच मैं आये आज़ादी के मूल्यों के है किस हद्द तक आज़ादी ठीक है ,क्या अपने नैतक मूल्यों पर आज़ादी ठीक है और आज़ादी की सीमा कहाँ पर जाकर ख़तम होगी और उस आज़ादी का क्या परिणाम होगा और ऐसी आज़ादी किस काम की है , दोनों अपनी सोच का दायरा आपसी रिश्तों  का दायरा और सबसे बड़ी बात अपने रिश्ते केदायरे मैं दूरिया बड़ा रहे हैं , एक पारम्परिक सोच मैं रही स्त्री भी जब घर की चार दीवारी से बहार निकलती है तो उसे लगता है सारे बंधन और सारी रस्में तोड़ दे क्युकी खुद को आज़ाद और आधुनिक जो समझना है बिना यह सोचे की यह आज़ादी की नहीं उसकी अपने अस्तित्व को एक मज़ाक बनाने की सुरुवात है ,स्त्री या पुरुष दोनों   समाज की जरूरत हैं और हमेशा एक दूसरे के पूरक ही रहेंगे तो क्यों आज़ादी का सोचना एक सोच और आपसे समझ शायद जयदा महत्व रखती है  लोगों को धोखा प्यार और पैसा बस यही दायरा है ,दोनों ही कामकाजी है और  दोनों ही बहार की दुनिया मैं रहते हैं अपनी ज़रूरतें बड़ा ली है और अंतहीन सपने है झूठे वादे ,और भ्रम मैं जीना ,झूठे सपनो को साकार करने की चाहत अपने नैतिक मूल्यों से दूर नहीं ले जा रहे और कोई यह नहीं सोचना चाहता आखिर यह कब तक चलेगा और जब उसका अंत होगा फिर क्या होगा और यही से उसके डर की सुरुवात होती है क्युकी झूठ हमेशा डरता रहता है और उसकी उम्र का पता नहीं होता कब ख़तम हो जायेगी l औरसाथ साथ यही से सुरुवात होती हैं  मनोबिज्ञान की जो आज के टाइम मैं बहुत बड़ी समस्या बन कर उभर रहा है आज इतने सारे मनोचिकित्सक पैदा हो  गए है और उनकीसंख्या मैं दिन प्रतिदिन बृद्धि होना साबित करता है इंसान कितना कमज़ोर है झूठ मैं फंसा एक पंछी जो उसे बहार भी निकलना चाहता है और उसे अपने पिंजरे से भी प्यार है बास्तविकता देखना नहीं चाहता और झूठ मैं जीते जीते खुद से भी प्यार नहीं कर पता ,आज के  दौर मैं मानसिक तनाब,हार्ट अटॅक शुगर आदि ऐसी बीमारियां है जो बहुत कम उम्र मैं होने लगी हैं l परिवार के टूटने का सबसे जयदा जिसपर असर होता है वो होते हैं बच्चे जो कभी नहीं देखना चाहते के उनके मम्मी या पापा अलग रहे ,हर बच्चे का सपना होता है अपने मम्मी पापा का हाथ थामकर  चलना जो उसके सपनो के संसार का सबसे ख़ूबसूरत सपना होता है परिवार का मतलब और मायने ही समाप्त हो जाता है अगर एस तरह का जीवन है, क्युकी आपके साथ बच्चे भी जुड़े हैं उनके परवरिश और अच्छे संस्कार भी दिए जाने जरूरी है l जब पति पत्नीमें विवाद जनम लेता है उसका सबसे जयदा असर उस कोमल मंन  पर पड़ता है जिसके मिटटी अभी गीली है और उसे अपने शकल इख्तियार करना है  अगर सुरुवात ही ऐसी होगी तो क्या शकल बनेगी कल की यह सोचने बाली बात है , और यह भी सोचने वाली बात है अमेरिका जैसे आज़ाद देश भी परिवारिक मान्यताओं को स्वीकारने लगे हैं क्युकी उन लोगों ने आज़ाद रहकर उनके मूल्यों और ज़रूरतों को समझा है और आज उसे महत्व को स्वीकार किता है l आज जिसतरह के रिश्तों का चलन की सुरुवात हुयी है वो देखने मैं सपनीला ज़रूर लगता है पर असलियत मैं बहुत तकलीफ और दर्द ही देरहा है "लिवइन रिलेशन " आज़ादी का मापदंड नहीं है ,शादी एक बंधन है जिसमें परिवार और समाज दोनों का ही दखल होता है और उसेसे ही रिश्ते बंधन मैं बंधे रहते हैं और एक खुश हाल ज़िन्दगी को जीते हैं  उनका असर समाज  और मानव दोनों पर होता है क्युकी   मानव एक समाजिक  प्राणी है जिसमें भाबनाएं है सुख दुःख का एहसास है ,सोचने समझने कीशक्ति है हर पल हर बात मैं उसे परिबार की ज़रुरत महसूस होती है और बनाबटी और झूठे रिश्तों का वजूद कभी नहीं होता वो सिर्फ एक मिथ्या ही हैं और आगे भी वही बने रहेंगे जो इनके महत्व को समझ पता है वही ज़िन्दगी मैं मूल्यों को धारण कर पता है l आपके आज के   नैतिक चरित्र कल आपके बच्चों सफलता या असफला असफलता का कारण बनता है l तो अच्छा है वक़्त बदले , तरक्की हो खुश हाली हो और परिवारों मैं एकता और अपनापन बना रहे वही आज की सबसे बड़ी पूंजी है और इसे  सम्भालना आज की  आवाज़ है l