अपनी मर्ज़ी...
अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं,
रुख़ हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं।
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं।
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से,
किसको मालूम, कहां के हैं, किधर के हम हैं।
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं,
कभी धरती के, कभी चांद नगर के हम हैं।
चलते-रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब,
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं।
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दैर में हम,
हर कलमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं।
ये जब की बात है तुम भी न थे निगाहों में,
तुम्हारे नाम की ख़ुशबू थी मेरी राहों में।
(जनाब निदा फ़ाज़ली के अ`शआर)
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