मैं औरत हूँ कोई भोग की बस्तु नहीं
किसी की कही चंद लाइनो ने सोचने पर विवश कर दिया भारत की संस्कृति बदल रही है अब महिलाएं तय करेंगी कि उन्हे किसके साथ सोना है और किसके साथ बच्चे पैदा करना है भारत कि संस्कृति बदल रही है ,बहुत ही छोटी मानसिकता और पुरुष सोच लगी ,क्या सारे पुरुषों की सोच ऐसी ही है क्या महिला सिर्फ एक भोग की सामग्री है जिसमें उसकी अपनी सोच या अपनी कोई इच्छा नहीं है
इतिहास गवहा है भारत मैं महिलों को पूरी आज़ादी थी अपने लिए बर का चुनाव करने कि सीता का स्वमबर या सावित्री ने अपने लिए सत्यवान को चुना या द्रोपदी का विवहा सबको आज़ादी थी अपने लिए अपने योग्य बर के चुनाब की,इसे यही साबित होता है पुराने समाये मैं महिलाओं को जयदा सम्मान और बराबर का अधिकार दिया गया था l
आज के बदलते परिवेश मैं महिलों से ही सारी उमीदें और आशाएं क्यों आखिर वो भी एक इंसान है और उसकी भी अपने ज़रुरत और चाहत है ,एक पुरुष को आज़ादी है वो जब कहें जिसकेसाथ चाहें अनैतिक रिश्ता बना सकता है तो फिर एक महिला क्यों नहीं ऐसा कर सकती शारीरिक जरूरत तो दोनों की है फिर एक को मर्यादा त्यागने का अधिकार और वही महिला करे तो उसे कुलटा या कलंकनी समझा जाता है यह कैसा दोहरा सा चरित्र है इस समाज का दोनों के लिए अलग -अलग मापदंड किस लिए हैंl
या तो पुरुष भी अपना दायरा तय करें नहीं करसकते तो उन्हे यह भी अधिकार नहीं कि वो उस पर पावंदी लगाये या फब्तियां कसे ,आज के दौर मैं जब महिलाएं चाँद पर जा रही है हर क्षेत्र मैं खुद को साबित कर रही है पुरुषों से किसी भी तरहा से पीछे नहीं हैं ,तो अब उनपर पाबन्दी किस लिए ,हर किसी को अपनी ज़िन्दगी जीने का बराबर से अधिकार है और यह कहने का भी कि उसकी शारीरिक ज़रुरत भी है और उसकी अपनी मर्ज़ी भी कानून भी यह अधिकार देता है बिना उसके मर्ज़ी से उसका पति भी उसके साथ रिश्ता नहीं बना सकता है फिर यह पुरुष मानसिकता या कुछ पुरुषों की मानसिकता क्यों नहीं बदल सकती है l
महिला सिर्फ एक देह नहीं है एक जीती जागती इंसान है जिसे अधिकार है वो अपनी इच्छा या मर्ज़ी से तय करे कि क्या चाहती है ,आज़ादी का मापदंड दोनों के लिए एक बराबर है दोनों को बराबर अधिकार है ,सोच शायद गलत लगे क्युकी हमेशा रिश्तों के नाम पर प्यार के नाम पर और समाज के नाम पर उसे से ही उम्मीद के जाती है वो त्याग करती रहे और चुपचाप से बर्दाश्त करती जाये क्युकी वो त्याग की मूरत है जैसी समाज और परिवार ने अपने हिसाब से तय किया है उसका एक दायरा l
आज जब वो अपराध के खिलाफ आवाज़ उठा रही है तब सबको बहुत परेशानी है वो चुप क्यों नहीं रहती कैसी मानसिकता मैं जी रहे हैं हम यौन अपराध , बलात्कार या घर मैं अपनों के द्वारा बच्चियों के साथ गलत हो वो नहीं दिखाई देता वहाँ उसके सम्मान के लिए लोग कितना साथ देते है खुद अपने माता-पिता भी यही कहते हैं चुप रहो क्युकी बदनामी होगी और उसी का असर है जो महिलाओं के खिलाफ अपराध इतने बढ़ते जा रहे हैं ,हमारी सोच बहुत छोटी है हम उसी मैं क़ैद है l समाज उसपर ही ऊँगली उठता है जिसके ऊपर अपराध हुआ है उसमें कोई कमी होगी यह ढूंढ़ता है बिना यह सोचे कि अपराधी की पूरे गलती है l बदलाब की ज़रुरत है हर तरफ नैतिक मूल्यों को बचाना है और आगे आपने वाली पीडी को कुछ देना है तो बदलाब महिला -पुरुष दोनों को ही मिलकर करना होगा ज़रुरत सोच और नज़रिया बदलने की है l
इतिहास गवहा है भारत मैं महिलों को पूरी आज़ादी थी अपने लिए बर का चुनाव करने कि सीता का स्वमबर या सावित्री ने अपने लिए सत्यवान को चुना या द्रोपदी का विवहा सबको आज़ादी थी अपने लिए अपने योग्य बर के चुनाब की,इसे यही साबित होता है पुराने समाये मैं महिलाओं को जयदा सम्मान और बराबर का अधिकार दिया गया था l
आज के बदलते परिवेश मैं महिलों से ही सारी उमीदें और आशाएं क्यों आखिर वो भी एक इंसान है और उसकी भी अपने ज़रुरत और चाहत है ,एक पुरुष को आज़ादी है वो जब कहें जिसकेसाथ चाहें अनैतिक रिश्ता बना सकता है तो फिर एक महिला क्यों नहीं ऐसा कर सकती शारीरिक जरूरत तो दोनों की है फिर एक को मर्यादा त्यागने का अधिकार और वही महिला करे तो उसे कुलटा या कलंकनी समझा जाता है यह कैसा दोहरा सा चरित्र है इस समाज का दोनों के लिए अलग -अलग मापदंड किस लिए हैंl
या तो पुरुष भी अपना दायरा तय करें नहीं करसकते तो उन्हे यह भी अधिकार नहीं कि वो उस पर पावंदी लगाये या फब्तियां कसे ,आज के दौर मैं जब महिलाएं चाँद पर जा रही है हर क्षेत्र मैं खुद को साबित कर रही है पुरुषों से किसी भी तरहा से पीछे नहीं हैं ,तो अब उनपर पाबन्दी किस लिए ,हर किसी को अपनी ज़िन्दगी जीने का बराबर से अधिकार है और यह कहने का भी कि उसकी शारीरिक ज़रुरत भी है और उसकी अपनी मर्ज़ी भी कानून भी यह अधिकार देता है बिना उसके मर्ज़ी से उसका पति भी उसके साथ रिश्ता नहीं बना सकता है फिर यह पुरुष मानसिकता या कुछ पुरुषों की मानसिकता क्यों नहीं बदल सकती है l
महिला सिर्फ एक देह नहीं है एक जीती जागती इंसान है जिसे अधिकार है वो अपनी इच्छा या मर्ज़ी से तय करे कि क्या चाहती है ,आज़ादी का मापदंड दोनों के लिए एक बराबर है दोनों को बराबर अधिकार है ,सोच शायद गलत लगे क्युकी हमेशा रिश्तों के नाम पर प्यार के नाम पर और समाज के नाम पर उसे से ही उम्मीद के जाती है वो त्याग करती रहे और चुपचाप से बर्दाश्त करती जाये क्युकी वो त्याग की मूरत है जैसी समाज और परिवार ने अपने हिसाब से तय किया है उसका एक दायरा l
आज जब वो अपराध के खिलाफ आवाज़ उठा रही है तब सबको बहुत परेशानी है वो चुप क्यों नहीं रहती कैसी मानसिकता मैं जी रहे हैं हम यौन अपराध , बलात्कार या घर मैं अपनों के द्वारा बच्चियों के साथ गलत हो वो नहीं दिखाई देता वहाँ उसके सम्मान के लिए लोग कितना साथ देते है खुद अपने माता-पिता भी यही कहते हैं चुप रहो क्युकी बदनामी होगी और उसी का असर है जो महिलाओं के खिलाफ अपराध इतने बढ़ते जा रहे हैं ,हमारी सोच बहुत छोटी है हम उसी मैं क़ैद है l समाज उसपर ही ऊँगली उठता है जिसके ऊपर अपराध हुआ है उसमें कोई कमी होगी यह ढूंढ़ता है बिना यह सोचे कि अपराधी की पूरे गलती है l बदलाब की ज़रुरत है हर तरफ नैतिक मूल्यों को बचाना है और आगे आपने वाली पीडी को कुछ देना है तो बदलाब महिला -पुरुष दोनों को ही मिलकर करना होगा ज़रुरत सोच और नज़रिया बदलने की है l