मुंसिफ़

लफ़्ज़ों के साथ इंसाफ़ करने की अदद कोशिश...

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It is too bad to be too good

Sunday 1 September 2013




  वहा  रे कानून वहा रे उसके रखवाले


आखिर कब तक हम लकीर के फ़कीर बने रहेंगे कब तक अपराधी नाबालिग और बुजुर्ग मने जाते रहेंगे अपराधी की मनोदशा और अपराध की संगीनता पर ध्यान क्यों नही दिया जाता बदलाब समाये की मांग होता है आज के महॊल मैं कानून मैं संसोधन  की  जरूरत महसूस की जा रही है हमारा देश इतना कमज़ोर है की कानून मे संसोधन नहीं कर सकता फिर किस बात का सिस्टम और किस बात की सरकार  है और किस बात का संविधान का लचीला होना जिसमें .एक अपराधी जिसने इतना संगीन अपराध किया उसे यह कह कर नाबालिग है छोड़ देना मजाक है उसने सबसे जयदा क्रूरता दिखाई उसे सिर्फ नाबालिग मान कर तीन साल की सजा सुनना बहुत गलत है न्यायाधीश गीतांजली को इसमें अपने विवेक का इंस्तेमाल करके न्याय करना चहिये था जो आनेवाले समाये मैं एक नजीर बन जाता पर उन्होंने भी वही अपने दायरे मैं और कानून की  हद्द मैं रहकर फैसला सुनाया उनका दायरे मैं रहना ज़रूरे है भले ही उस बच्ची के माँ बाप ज़िन्दगी भर इस दर्द  को झेलते रहेंगे अपराधी जो कहें करें उन्हे हर बात की छूट है पर कानून के रखवाले एक इंच न आगे और न पीछे सोचकर फैसला करेगे वो सारे नियम कानून मानेगे भले ही कितने अपराध और अपराधी बढते  रहे क्या मज़ाक है -और हम उसी अंधे कानून के आगे झुकते  रहेंगे वह रे कानून और वह रे उसके रखवाले आज अगर आवाज़ नहीं उठी तो कब आवाज़ उठेगी

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