वहा रे कानून वहा रे उसके रखवाले
आखिर कब तक हम लकीर के फ़कीर बने रहेंगे कब तक अपराधी नाबालिग और बुजुर्ग मने जाते रहेंगे अपराधी की मनोदशा और अपराध की संगीनता पर ध्यान क्यों नही दिया जाता बदलाब समाये की मांग होता है आज के महॊल मैं कानून मैं संसोधन की जरूरत महसूस की जा रही है हमारा देश इतना कमज़ोर है की कानून मे संसोधन नहीं कर सकता फिर किस बात का सिस्टम और किस बात की सरकार है और किस बात का संविधान का लचीला होना जिसमें .एक अपराधी जिसने इतना संगीन अपराध किया उसे यह कह कर नाबालिग है छोड़ देना मजाक है उसने सबसे जयदा क्रूरता दिखाई उसे सिर्फ नाबालिग मान कर तीन साल की सजा सुनना बहुत गलत है न्यायाधीश गीतांजली को इसमें अपने विवेक का इंस्तेमाल करके न्याय करना चहिये था जो आनेवाले समाये मैं एक नजीर बन जाता पर उन्होंने भी वही अपने दायरे मैं और कानून की हद्द मैं रहकर फैसला सुनाया उनका दायरे मैं रहना ज़रूरे है भले ही उस बच्ची के माँ बाप ज़िन्दगी भर इस दर्द को झेलते रहेंगे अपराधी जो कहें करें उन्हे हर बात की छूट है पर कानून के रखवाले एक इंच न आगे और न पीछे सोचकर फैसला करेगे वो सारे नियम कानून मानेगे भले ही कितने अपराध और अपराधी बढते रहे क्या मज़ाक है -और हम उसी अंधे कानून के आगे झुकते रहेंगे वह रे कानून और वह रे उसके रखवाले आज अगर आवाज़ नहीं उठी तो कब आवाज़ उठेगी
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