मुंसिफ़

लफ़्ज़ों के साथ इंसाफ़ करने की अदद कोशिश...

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It is too bad to be too good

Thursday, 8 January 2009

घर से निकले...

घर से निकले तो हो, सोचा भी किधर जाओगे,
हर तरफ़ तेज़ हवाएं हैं बिखर जाओगे।

इतना आसान नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना,
घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे।

शाम होते ही सिमट जाएंगे सारे रस्ते,
बहते दरिया में जहां होगे ठहर जाओगे।

हर नए शहर में कुछ रातें कड़ी होती हैं,
छत से दीवारें जुदा होंगी तो डर जाओगे।

पहले हर चीज़ नज़र आएगी बेमानी-सी,
और फिर अपनी ही नज़रों से उतर जाओगे।

(जनाब निदा फ़ाज़ली के अ`शआर)

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2 Comments:

Blogger abdul hai said...

Nice Asharr doing great

8 January 2009 at 10:49  
Blogger के सी said...

तबीयत ही मिली ... के बाद आपने
अपनी मर्जी के....
तन्हा तन्हा ....
चलो यूँ ही.....
और घर से निकले ....
ग़ज़लों से इस महफ़िल को और जवां कर दिया, ज़रा आहिस्ता चलिए सुरूर बढ़ चला है।

8 January 2009 at 20:05  

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